इस फिल्म की तरह ही बनी है पद्मावती तो यकीनन कटेंगे दृश्य

रानी पद्मिनी पर 1964 में भी महारानी पद्मिनी के नाम से फिल्म बन चुकी है. जसवंत झावेरी के निर्देशन में बनी इस फिल्म में कलाकार जयराज, अनिता गुहा, सज्जन, इंदिरा, श्याम ने अभिनय किया था. जिन तथ्यों को लेकर संजय लीला भंसाली की पद्मावती को लेकर विवाद हो रहा है कुछ ऐसे ही तथ्य महारानी पद्मिनी में भी दिखाए गए थे. हालांकि इस फिल्म के क्लाइमेक्स में वह रानी पद्मिनी को बहन मानने लगता है, परंतु तब तक सबकुछ खत्म हो जाता है. फिल्म में दिखाया गया था कि एक बड़े दर्पण में अलाउद्दीन खिजली को रानी पद्मिनी का चेहरा दिखाया जाता है. रानी के सौंदर्य को देखकर खिलजी कहता है सुबाहन अल्लाह. यही दृश्य पद्मावती फिल्म में भी बताया जा रहा है लेकिन इस पर विवाद है कि उस वक्त दर्पण का अस्तित्व ही नहीं था. दरअसल, सूफी ​​कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में इसका वर्णन किया है कि अगर राजा उनको पद्मिनी का चेहरा दिखाएंगे तो वह चित्तौड़ पर आक्रमण नहीं करेंगे. राजा रत्नसेन बादशाह की बाद मान लेता है. राजा और बादशाह रानी के महल के सामने शतरंज खेलते रहते हैं जहां एक दर्पण में लगा रहता है और उस दर्पण के सामने ही एक झरोखा भी था जहां रानी कौतुहलवश आती हैं और बादशाह रानी का सौंदर्य देखकर बेहोश होकर गिर पड़ता है.
अगर संजय लीला भंसाली ने पुरानी फिल्म की तरह ही इसे बनाया है तो यह मान लीजिए यह पूरी फिल्म विवाद में पड़ सकती है. क्योंकि शुरू से आखिरी तक अलाउद्दीन खिलजी को गद्दार की भांति नहीं, बल्कि हीरो की तरह दिखाया गया है. चित्तौड़ पर आक्रमण करने, चित्तौड़ के महाराज को बंदी बनाने के लिए खिलजी के सिपहसालार को दोषी बताया जाता है. यहां तक कि बंदी से छूटने के बाद भी चित्तौड़ के राजा भी यही मानते रहते हैं कि खिलजी की जगह किसी दूसरे को जिम्मेदार मानता है. खिलजी की हीरो की छवि तब दिखाई देती है जब वह युद्ध होता रहता है और खिलजी युद्ध रोकने के लिए चिल्लाता रहता है कि रुक जाओ... रुक जाओ. क्या ऐसा हो सकता है कि दिल्ली के शहंशाह की बात उसके सिपहसालार और सैनिक न माने. क्या ऐसा हो सकता है कि शहंशाह से बिना पूछे सिपहसालार उनकी मुहर किसी पैगाम पर लगा दे. और पता होने के बाद भी उसे शहंशाह सजा न दे. ​इसमें ​मलिका—ए—शहंशाह पद्मिनी को अपनी बहन बना लेती है क्योंकि बार—बार उसे ख्वाबों में शहंशाह का कटा सिर नजर आते हैं और रानी से वचन लेती है कि वह शहंशाह को कुछ नहीं होने देगी. गौरा जिस वक्त खिलजी को मारने के लिए तलवार उठा लेता है उसी वक्त उसे बचाने के लिए पद्मिनी सामने आ जाती हैं. ताकि वह मलिका—ए—शहंशाह को दिया वचन न टूटे. पद्मिनी वचन निभाती हैं और इस वचन के बारे में मलिका शहंशाह को बताती हैं तो वह भी रानी को अपनी बहन मानने लगता है. लेकिन तब तक सबकुछ खत्म हो जाता है. कुलमिलाकर यह है कि इस 1964 में आई महारानी पद्मिनी में खिलजी की बुराई नजर नहीं आती.
इस कहानी के लिए सूफी ​​कवि मलिक मुहम्मद जायसी को भी दोष नहीं दिया जा सकता. क्योंकि ऐसी घटनाएं अवधी भाषा में ​रचित महाकाव्य पद्मावत में भी वर्णित नहीं है. जायसी ने अपने महाकाव्य में कहीं पर भी रानी पद्मिनी को खिजली की प्रेमिका के तौर पर वर्णित नहीं किया है. जायसी का यह प्रेमाख्यान बेहद रोमांचक है और पढ़ने वाले उसमें डूब जाते हैं. पद्मावत में तो वह यह भी बताते हैं कि खिलजी गलत इरादे से ही चित्तौड़ के दरबार में प्रवेश करते हैं. दरबार में उसे एक जगह पर बहुत सी स्त्रियां नजर आती हैं और वह पंडित राघव चेतन से पूछता है कि इनमें से पद्मिनी कौनसी है. राघव चेतन कहता है कि ये सब तो दासियां हैं.  यहां तक कि जायसी ने भी खिलजी को आक्रांता, वासनायुक्त, धोखेबाज बादशाह बताया था. रचनाकार कितनी ही कृतियां क्यों न लिख लें, लेकिन उसकी एक कृति ऐसी होती है जिसके कारण उसे हमेशा स्मरण किया जाता है. जायसी के साथ में ऐसा ही हुआ है. जायसी ने 21 महाकाव्य लिखे हैं लेकिन उनको पद्मावत के लिए ही स्मरण किया जाता है.

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