क्या दलित नहीं मना सकते अपना शौर्य दिवस

देश में दलितों के साथ कितना बुरा बर्ताव किया जा रहा है यह भीमा-कोरेगांव की घटना से लगाया जा सकता है. इस बात का पहले ही पता था कि दलित समाज के शौर्य दिवस के 200 साल पूरे होने पर भीमा-कोरेगांव में लाखों की तादाद में ​दलित एकत्रित होंगे. इसलिए वहां होटल, रेस्टारेंट, ढाबों और अन्य खाने-पीने का सामान बेचने वाली दुकानों को पहले ही चेतावनी देकर बंद करा दिया गया ताकि एकत्रित दलित समाज के लोगों को खाने-पीने की कोई चीज नहीं मिले. और हुआ भी वही. दलित लोग भूखे-प्यासे थे और उन पर इस स्थिति में हमला किया गया. जिसमें एक ​दलित मारा गया.
एक तरफ तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत एक गांव, एक मंदिर और एक जलाशय का आह्वान करते हैं और दूसरी तरफ दलित समाज पर अत्याचार करने में पीछे नहीं रहते. क्या यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दोहरा रवैया नहीं है. शिवसेना क्या मराठों के बल पर ही खड़े है. दलित समाज की हालत ऐसी कर दी गई है जैसे वे हिन्दू हैं ही नहीं. भाजपाई भी इसमें कतई पीछे नहीं है. क्योंकि महाराष्ट्र में उनकी ही सरकार है. क्या कोई सरकार इतनी निक्कमी हो सकती है कि उनकी नाक के नीचे यह सब योजना बनाई गई हो और उसे पता तक नहीं. क्या उनकी खुफिया एजेंसी सिर्फ सोने की पगार लेती है, जो सरकार को खुफिया रिपोर्ट तक नहीं दे सकती. क्या ​दलित समाज को अब इतना भी अधिकार नहीं है कि वे अपना शौर्य दिवस मनाए. देश में दलितों को इस तरह से मारा-पीटा जा रहा है जैसे वे उनको इंसान ही नहीं हैं.
मीडिया भी कम नहीं है, जो तथ्यों को इस तरह से दिखा रहा है जैसे शौर्य दिवस मना कर दलित कोई बुरा काम कर रहे हैं. हंसी आती है ऐसे मीडिया पर जो शौर्य दिवस को ब्रिटिश जीत का जश्न बता रहे हैं. लेकिन कोई कर भी क्या सकता है, क्योंकि मीडिया में भी उन्हीं के लोग तो है, वे कैसे इसे दलितों का शौर्य दिवस बता सकते हैं. उनकी नाक जो कट जाएगी.
हाल ही में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को नीच जाति का बता कर गुजरात चुनाव जीता है. अगर गुजरात में दलित समाज के लोग उन्हें वोट नहीं देते तो गुजरात में आज भाजपा की सरकार नहीं होती. और अब जीतने के बाद में दलितों को ही आंख दिखाई जा रही है. क्या ​दलितों के सहयोग का यह सिला देंगे. अगर देखे तो देश में रोजाना दलितों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं लेकिन देश के मुखिया खामोश है. दलितों को​ किसी न किसी तरह से दबाया जा रहा है. देश में कभी ​दलित महिला के साथ दुष्कर्म की घटना सामने आती है तो कभी गौरक्षा के नाम पर किसी दलित को पीट-पीट कर मार दिया जाता है. कभी दलित के घर को फूंक दिया जाता है तो कभी इतना मजबूर कर दिया जाता है कि या तो वह आत्महत्या कर लेता है या धर्म परिवर्तन. खुद को उच्च जाति का कहने वाले लोग ऐसे कृत्यों को अंजाम देकर खुशियां मनाते हैं. लेकिन कोई कर भी क्या सकता है जहां सबकुछ उन्हीं के हाथ में हो. जहां कानूनी प्रक्रिया में उनके आदमी हो. जहां उच्च अधिकारी उनकी जाति के लोग हो. जहां नेता, मंत्री और मुख्यमंत्री उनके हो. ऐसे लोगों का कोई बिगाड़ भी क्या सकता है. खुद को पवित्र समझने वाले ये लोग आज भी दलित समाज को अपवित्र समझते हैं. यही उनकी मानसिकता है. और यह मानसिकता शायद ही कभी बदल सकती है. वे ये भूल गए हैं कि देश को बनाने में दलित समाज ने भी अपना बलिदान दिया है. भीमा-कोरेगांव की घटना के बाद महाराष्ट्र में दलित समाज का उग्र होना संकेत है कि उनको कम न आंका जाए. 

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