पद्मावती : एक आततायी से इनती सहानुभूति क्यों है Sanjay Leela Bhansali को

पद्मावती Padmavati लगभग रिलीज को तैयार है. एक सवाल है जो मन में रह—रह कर खटक कर रहा है. क्या दर्शक एक आततायी या उसके कृत्यों से घृणा कर पाएंगे? क्योंकि यहां आततायी के कैरेक्टर को इस तरह से बनाया गया है जहां घृणा के बदले उससे सहानुभूति और प्यार हो सकता है। अगर आप उस पात्र (Character) से घृणा नहीं तो कम से कम उसे पसंद (like) भी नहीं करते होंगे. लेकिन पद्मावती के आततायी यानी अलाउद्दीन खिजली की भूमिका रणवीर सिंह निभा रहे हैं. उनके Character में इतनी जान डाल दी गई है कि दर्शक (Audience)  और ​समाचोलक उनकी सराहना करने में कमी नहीं छोड़ेंगे. दर्शक सीटियां बजाएंगे तो कलमवीर कसीदे गढ़ेंगे. 

यह भी हो सकता है कि अदाकारी  में वे रतनसिंह के Character यानी शा​हिद कपूर (Shahid Kapoor)  को भी पीछे छोड़ दे. पद्मावती का ट्रेलर देखकर लगता भी यही है. अगर हम आततायी के Character की सराहना करना चाहते हैं तो अभी से उसे आदत में डाल लेना चाहिए. और उस इतिहास या फिर उस Character  को भी अपनी पसंद बना लेना चाहिए. जिसे अब तक नापसंद करते आ रहे थे. वरना ​फिल्म देखने के बाद इसे अपनी पसंद बनाने पर मजबूर होना पड़ेगा. एक आततायी जिसने सैकड़ों मंदिर तोड़े थे. एक बर्बर शासक जिसने हजारों हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया था. एक ऐसा निर्मम शासक जिसने हजारों लोगों का धर्म परिवर्तन करवा दिया था. ​परंतु संजय लीला भंसाली Sanjay Leela Bhansali इस व्याभिचारी कैरेक्टर को एक प्रेमी के रूप में दिखाने पर आतुर है. यानी चित्तौड़ की रानी पद्मनी से प्रेम ​प्रसंग दिखाना चाहते हैं. 

दरअसल, क्रूर अलाउद्दीन खिलजी का जन्म 1250 में हुआ था और उसने 1303 में चित्तौड़ Chittor पर आक्रमण किया था. यानी उस वक्त वह 53 वर्ष का था. परंतु फिल्म में एक 30 साल के नौजवान को आततायी बनाया गया है ताकि उसे दर्शकों की सहानुभूति और प्यार मिल सके. इस सहानुभूति और प्यार के कारण शायद दर्शक उसे महान भी समझ बैठे. या आततायी को जबदरस्ती महान बनाने की कोशिश की जा रही है. निर्माता निर्देशक फिल्म में यह भी नहीं दिखा सकते हैं कि 'यह फिल्म काल्पनिक है' क्योंकि फिल्म के सभी पात्र ऐतिहासिक हैं. फिर भी काल्पनिक की मुहर लगाई जाती है तो इसके सभी कैरेक्टर व लोकेशन के नाम बदल दिए जाए. इतना जरूर है जब भी यह फिल्म रिलीज होगी तब आप इसे देखेंगे जरूर. सिनेमाघर में नहीं तो टीवी व मोबाइल पर. लेकिन एक बार देखोगे जरूर. कुछ अद्भुत बुद्धि वाले कह भी देते हैं कि पहले फिल्म देखो, फिर आलोचना करो. यानी उनकी बात में यह शर्त छुपी है कि पहले फिल्म हिट करा दो; फिर खूब आलोचना करो; उनको कोसों; क्योंकि उपर सेटिंग करके वो पुरस्कार भी ले लेंगे. यानी एक आततायी के प्रति सहानुभूति और प्यार जगाने के लिए उनको इनाम भी मिल जाएगा. परंतु जो लोग फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने के लिए लाख विरोध कर रहे हैं उनको क्या मिलेगा. क्या एक फिल्म की सफलता के लिए कोई भी फिल्मकार इतना नीचे गिर सकता है. क्या ​उनके लिए इतिहास का चीरहरण करना इतना जरूरी है. क्या ​इतिहास History उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है. 

क्या कलाकारों (Artist) के लिए इतिहास को छिन्न—बिन्न करना ही कला है. क्या यह हिन्दू रानी को बदनाम करने जैसा नहीं है. आज अगर एक ऐतिहासिक पात्र के साथ ऐसा होगा तो आने वाले दिनों में कला के नाम पर कलाकार न जाने क्या—क्या दिखाएंगे. और हम या तो मनमसोस कर रहे जाएंगे या कला की स्वतंत्रता के बीच घुट कर रह जाएंगे. क्या यह कला आतंकवाद नहीं है. Is this not art terrorism. जहां कलाकार कुछ भी परोस देंगे और उसे कला का नाम दे दिया जाएगा. फिर चाहे जन भावनाएं ही क्यों न कुचल जाए. सेंसर बोर्ड Central Board को पद्मावती में जो भी आपत्तिजनक लगता है उन दृष्यों पर कैंची चलनी चाहिए. उसका काम सिर्फ को ग्रेड देने मात्र नहीं है.  (ये विचार विरोधरत राजपूत समाज के हैं।)

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