खूब लड़ीं मर्दानी

लगातार पांच साल तक दिल्ली के सिंघासन पर शासन करने वाली कांग्रेस अन्य राजनीति दलों पर तमाचा जड़कर एक बार फिर सत्तारूढ़ होने जा रही हैं. जनता का फैसला सिरोधारी. कांग्रेस की जीत में सबसे बड़ी भूमिका सोनिया गांधी की हैं, जो 1998 से निरंतर कांग्रेस में जान फूंकती आ रही हैं. पिछले आम चुनाव में भी कांग्रेस की जीत में सोनिया गांधी की अहम् भूमिका रही थी. इस बात का जिक्र मैंने मार्च में अपने ब्लॉग पर 'क्या फिर खूब लड़ेगी मर्दानी' में किया था. जिसके सामने न तो दिल्ली की गद्दी पर विराजमान होने का सुख भोग चुकी भारतीय जनता पार्टी या भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन कर सकी और न ही अविश्वास प्रस्ताव से डराने वाली वामदल. कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में अगर और कोई सहायक रहा है, तो वह है परमाणु करार. जिस पर कांग्रेस ने अपने कदम ज़रा भी पीछे नहीं हटाए. इस पर कांग्रेस ने किसी सहयोगी पार्टी की नहीं सुनी और न ही गाहे-बगाहे डराने वाले नेताओं की. आपको ज्ञात होगा कि परमाणु करार पर मैंने डीडी साइलेंट ब्लॉग पर 'एक ऐसा करार हो' में जिक्र किया था कि कांग्रेस को ही 'विजयरथ' में सवार कराएगा. लेकिन इस फैसले में भी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ही छाई रहीं. वास्तव में कांग्रेस को जीत के पथ पर ले जाने के लिए बहुत सारी खूबियां थी, जो अन्य दलों को हमेशा खामियां लगती रहीं और यही उनकी हार का कारण बना. भाजपा सोनिया को विदेशी महिला बताकर जीत दर्ज करना चाहते थे. ख़ैर भाजपा तो हमेशा विदेशी महिला मूल का ही राग आलापती रही है. जिसमें अब तक तो वो सफल हो नहीं सके. पार्टी आगे किस तरह की विचारधारा बनाएगी यह तो समय ही बताएगा. वामदलों ने कांग्रेस के विजयरथ में कई रोड़े अटकने की कोशिश की, लेकिन सारे बाण विफल रहे. पिछले आम चुनाव में कांग्रेसनीत संप्रग के उभरने के बाद सभी ने कयास लगाया था कि कांग्रेसनीत संप्रग ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं है, लेकिन उसने पूरे पांच साल आसानी से निकल लिए, जो कांग्रेस की कुशलपूर्वक नीति का परिणाम है.

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